बाजार पर काबिज चायनीज छतरियां
हुबली। इलेक्ट्रानिक्स सामान, मोबाइल,पिचकारियां, खिलौने, के बाद अब चीनी छाता भी बाजार पर काबिज हो गया है। बरसात और धूप से बचाव का साधन छाता चीन की कारीगरी से अब फैशन स्टेटमेंट बन गया है। चीन के रंग-बिरंगे, डिजाइनर और छोटे छातों से बाजार पटे पड़े हैं। हालांकि,मजबूती के मामले में परंपरागत भारतीय छाते आज भी पसंद किए जाते हैं। मजबूती के मामले में चीन निर्मित हल्के और डिजाइनर छाते नहीं टिक पाते हैं। बहरहाल इन दिनों छातों का बाजार गरमाया हुआ है। फैशनेबल छतरियों के साथ चीन ने बड़े आकार के लवर्स अम्ब्रेला भी पेश किए है, जिनकी काफी मांग देखी जा रही है। रंग-बिरंगी चीनी छतरियां युवाओं और बच्चों को खूब भा रही हैं। इनके सामने एक रंग रंग वाले सादे व आकार में बड़े भारतीय छातों का आकर्षण कम हुआ है।
भारतीय छातों की सानी नहीं
शहर का ब्रॉड वे व जनता बाजार इन दिनों चाइनीज छातों से पटा पड़ा है। एक व्यापारी का कहना है कि नई पीढ़ी बड़े छाते लेकर नहीं चलना चाहती। उनकी पसंद ऐसे छोटे छाते हैं, जिन्हें आसानी से साथ लेकर चला जा सके। यही वजह है कि आज बाजार में कई-कई बार फोल्ड होने वाले चीनी छातों की मांग ज्यादा है। इन चीनी छातों की कीमत 70 रुपए से 300 रुपए तक है। दो फोल्ड वाले छाते का दाम जहां 70 रुपए है, वहीं पांच बार फोल्ड होने वाला छाता 150 रुपए में बिक रहा है। व्यापारियों का कहना है कि इस बार चीन ने सात बार फोल्ड होने वाला छाता भी पेश किया है। एक दुकानदार ने कहा कि बेशक लोगों के बीच डिजाइनर चाइनीज छातों का क्रेज अधिक है, लेकिन आज भी ऐसे लोग हैं, जो परंपरागत भारतीय छाता ही साथ लेकर चलना पसंद करते हैं। मजबूती के मामले में ड्रैगन भारतीय छातों का मुकाबला नहीं कर सकता।
लवर्स अम्ब्रेला ने किया क्रेजी
चीन ने छातों को रोमांस का साधन भी बना दिया है। उसने ऐसे छाते बनाए हैं जिनके नीचे प्रेमी जोड़ा एक साथ चल सकता है। इस तरह के छातों को लवर्स अम्ब्रेला नाम दिया गया है, इनकी अच्छी खासी मांग है। गुलाबी और आसमानी रंग में उपलब्ध लवर्स अम्ब्रेला का दाम 350 रुपए से 700 रुपए तक है। व्यापारियों का कहना है कि रिटेल बाजार से लवर्स अम्ब्रेला की काफी मांग आ रही है। बाजार में बच्चों के छोटे छातों की भी काफी मांग है बच्चों के छाते का दाम 30 से १00 रुपए तक है।
मेरे बारे में
- Dharmendra Gaur
- Nagaur, Rajasthan, India
- नागौर जिले के छोटे से गांव भूण्डेल से अकेले ही चल पड़ा मंजिल की ओर। सफर में भले ही कोई हमसफर नहीं रहा लेकिन समय-समय पर पत्रकारिता जगत में बड़े-बुजुर्गों,जानकारों व शुभचिंतकों की दुआ व मार्गदर्शन मिलता रहा। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए तंग,संकरी गलियों व उबड़-खाबड़ रास्तों में आने वाली हर बाधा को पार कर पहुंच गया गार्डन सिटी बेंगलूरु। पत्रकारिता में बीजेएमसी करने के बाद वहां से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के साथ जुड़कर पत्रकारिता का क-क-ह-रा सीखा और वहां से पहुंच गए राजस्थान की सिरमौर राजस्थान पत्रिका में। वहां लगभग दो साल तक काम करने के बाद पत्रिका हुबली में साढ़े चार साल उप सम्पादक के रूप में जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बाद अब नागौर में ....