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Nagaur, Rajasthan, India
नागौर जिले के छोटे से गांव भूण्डेल से अकेले ही चल पड़ा मंजिल की ओर। सफर में भले ही कोई हमसफर नहीं रहा लेकिन समय-समय पर पत्रकारिता जगत में बड़े-बुजुर्गों,जानकारों व शुभचिंतकों की दुआ व मार्गदर्शन मिलता रहा। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए तंग,संकरी गलियों व उबड़-खाबड़ रास्तों में आने वाली हर बाधा को पार कर पहुंच गया गार्डन सिटी बेंगलूरु। पत्रकारिता में बीजेएमसी करने के बाद वहां से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के साथ जुड़कर पत्रकारिता का क-क-ह-रा सीखा और वहां से पहुंच गए राजस्थान की सिरमौर राजस्थान पत्रिका में। वहां लगभग दो साल तक काम करने के बाद पत्रिका हुबली में साढ़े चार साल उप सम्पादक के रूप में जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बाद अब नागौर में ....

फ़रवरी 03, 2010

आज भी पूज्य है मानव चमड़ी से बनी पगरखी

१२वीं सदी में एक भक्त ने बसवेश्वरा को की भेंट
हुबली, फरवरी। भक्त की ओर से अपने आराध्य के प्रति समर्पण कोई नया नहीं है। इतिहास में ऐसे अनेक दृष्टांत मिल जाएंगे जहां भक्त की ओर से भगवान के प्रति किया गया समर्पण एक इतिहास बन गया। ऐसी ही एक मिसाल सदियों पूर्व गुलबर्गा जिला केन्द्र से ४५ किलोमीटर दूर सेडम तालुक में बसे गांव निवासी मोची की है। जिसका समर्पण आज भी यादगार बना हुआ है। यहां आज भी १२वीं सदी में बनी पादुकाओं को पूजा जाता है। यह कोई साधारण चप्पल नहीं बल्कि समाज सुधारक,दार्शनिक व वीर शैव धर्म के संस्थापक बसवेश्वरा को भेंट की गई चप्पल है,जो मानव चमड़ी से बनी है। बिंजनाल गांव में १२ वीं सदी में एक मोची मादार चैन्नय्या ने स्वयं व पत्नी की चमड़ी से तैयार कर एक चप्पल जोड़ी बश्वेश्वरा को उपहार स्वरूप दी थी।
आठ सौ साल पुरानी है पगरखी: कहा जाता है कि मोची बश्वेश्वरा के कार्यों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने खुद व पत्नी के शरीर जांघ से चमड़ी निकालकर चप्पल बना दी व बसवेश्वरा को भेंट कर दी। आठ सौ साल पुरानी इस चप्पल (पगरखी) को कीड़ों व खराब होने से बचाने के लिए हजारों श्रद्धालुओं की ओर से १८ वीं सदी में बनाए गए एक छोटे परंतु विशेष मंदिर में रखा गया है। समाज सुधारक बसवेश्वर ने उच्च जाति समुदाय से संबंधित लोगों को जोड़कर जाति भेद से दूर एक नए वर्ग का उदय कर समाज में व्याप्त कुरीतियों व सामाजिक बुराईयों व जातियता के भेदभाव को मिटाने के लिए व्यापक कार्यक्रम चलाया।
करोड़ों लोगों का आस्था बिंदु : एक जमाने में निजामों के अधीन रहे इस क्षेत्र में समाज, विशेष रूप से निम्न श्रेणी के अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए और उनको भगवान का दूत मानने लगे। उनके अनुयायी लिंगायत कहलाए और आज कर्नाटक में लिंगायत समुदाय का बाहुल्य है। बसवेश्वरा ने समाज में कुरीतियों को दूर करने के लिए जनता को समझाने के लिए सरल भाषा में चौपाईयों की रचना की। उनके शिष्यों ने भी चौपाईयां लिखी है।
अठारहवीं सदी में बना मंदिर: राज्य की उत्तर-पूर्वी सीमा पर महाराष्ट्र व कर्नाटक की सीमा पर बसा कलबुर्गी,यानी कन्नड़ भाषा में पत्थरों का शहर (गुलबर्गा) में बसवेश्वर के सम्मान में मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के केन्द्रीय भाग में शरण बसवेश्वर की समाधि है जिसे गर्भ गुडी कहा जाता है। इसके पास ही एक झील भी है जो यहां कर्नाटक,तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश से आने वाले पर्यटकों व श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र है। इस झील के उन्नयन्न का कार्य किया जा रहा है। वर्ष में एक बार मई माह में बसवेश्वर के सम्मान में बड़े पैमाने पर रथोत्सव जात्रा का आयोजन किया जाता है जिसमें कर्नाटक सहित पड़ोसी राज्यों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं।

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