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Nagaur, Rajasthan, India
नागौर जिले के छोटे से गांव भूण्डेल से अकेले ही चल पड़ा मंजिल की ओर। सफर में भले ही कोई हमसफर नहीं रहा लेकिन समय-समय पर पत्रकारिता जगत में बड़े-बुजुर्गों,जानकारों व शुभचिंतकों की दुआ व मार्गदर्शन मिलता रहा। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए तंग,संकरी गलियों व उबड़-खाबड़ रास्तों में आने वाली हर बाधा को पार कर पहुंच गया गार्डन सिटी बेंगलूरु। पत्रकारिता में बीजेएमसी करने के बाद वहां से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के साथ जुड़कर पत्रकारिता का क-क-ह-रा सीखा और वहां से पहुंच गए राजस्थान की सिरमौर राजस्थान पत्रिका में। वहां लगभग दो साल तक काम करने के बाद पत्रिका हुबली में साढ़े चार साल उप सम्पादक के रूप में जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बाद अब नागौर में ....

मार्च 25, 2010

ढ़ूढंते रह जाओगे दुल्हनियां भाग २

जिस देश में शीर्ष पदों पर महिलाएं हो और जहां औरत को बड़ा दर्जा दिया जाता हो उसी देश में एक महिला ही एक भावी महिला (कन्या) का जीवन छीन रही है। भारत के संदर्भ में कहा तो यह जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं लेकिन जब नारी की इस तरह दुर्दशा होगी तो देवताओं का निवास कैसे संभव होगा यह विचारणीय प्रश्न है। ऐसा नहीं है कि कन्या भ्रूण हत्या पहले नहीं होती थी या लोग इस जघन्य अपराध से वाकिफ नहीं थे। लेकिन तब की परिस्थितियों और आज के हालात काफी बदले हुए हैं। राजा-महाराजाओं के समय में लड़की के जन्म पर मातम जैसा माहौल होता था वहीं पुत्र प्राप्ति पर जश्न। इतना ही नहीं उस समय जब भू्रण परीक्षण के साधन नहीं हुआ करते थे ऐसी स्थिति में लड़की को जन्म लेते ही मार दिया जाता था और इसके लिए अनेक तरीके,मसलन नवजात को कोरे बर्तन में डाल बंद करना या उसे ठंडे पानी में डालना आदि प्रचलित थे। समय ने करवट ली और विज्ञान ने ऐसी सुविधा दे दी जिसमें बच्चा या बच्ची का पता माता के गर्भ में ही लगाया जाने लगा। आज समाज में बड़े कहे जाने वाले परिवारों में भू्रण परीक्षण की बीमारी ज्यादा है। गरीब के पास न तो इतनी सुविधाएं होती है और ना ही वह इस पचड़े में पडऩा चाहता है। वह बेटा या ेटी को भगवान का दिया उपहार मानकर पाल-पोस कर बड़ा कर देता है लेकिन बड़े कहे जाने वाले परिवारों की (कुछ परिवार अपवाद हो सकते हैं जहां बेटियों को सम्मान मिलता है) बात कुछ ओर है। वहां आज भी बेटी को हैय नजरों से देखा जाता है। देश भर में सभी राज्यों में लगभग एक समान स्थिति है इस मामले में केरल को अपवाद कहा जा सकता है जहां लिंगानुपात व साक्षरता दर दोनों सकारात्मक है। अन्य राज्यों में यह स्थिति काफी चिंताजनक है। पहले बारह साल या इसके आसपास लड़की के हाथ पीले कर देना यानी शादी कर देना ठीक समझा जाता था ताकि लड़की के बड़ी होने पर कुछ ऊंच नीच जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़े। हालांकि आज भी कुछ राज्यों में बारह और १५ साल तक कन्याओं को परिणय सूत्र में बंाध कर अभिभावक अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। एक समय में जैन समाज में लड़कियों की कमी बताई जाती थी लेकिन आज कमोबेश सभी समाज में लड़कियों की कमी का सामना करना पड़ रहा है और इसके चलते उन्हें जिले या फिर राज्य से बाहर रिश्ते तय करने पड़ रहे हैं। पहले लड़की को बोझ समझा जाता था लेकिन आज बेटी या बेटियों के पिता बड़े गर्व से कहते हैं कि उनके पास बेटी है। क्योंकि आज विवाह योग्य लड़कों की संख्या ज्यादा है लेकिन उनके लिए योग्य वधु नहीं मिल रही है। कारण स्पष्ट है कि हर समाज में लड़कियों की संख्या कम हो रही है। मेरा रिश्ता तय होने के पांच साल बाद शादी हुई और शादी को मई १० में सात साल भी हो जाएंगे। लेकिन इस बीच जिस तेजी से परिस्थितियां बदली,मैं खुद यकीन नहीं कर सकता। क्योंकि उस समय बेटी के बाप को गांव-गांव,शहर-शहर घूमना पड़ता था। मैंने देखा है कि कई महीनों या साल भर चक्कर काटने के बाद रिश्ता तय होता था लेकिन अब स्थिति ठीक इसके उलट है। अब बेटी के बाप को उसके रिश्ते की जितनी ङ्क्षचता नहीं है उससे ज्यादा बेटे के बाप को होती है। इसलिए वह बेटे के परिपक्व होने से पहले ही दुल्हन की तलाश शुरू कर देता है। क्योंकि समय पर लड़की नहीं मिली तो फिर रिश्ता करने में पसीने आ जाते हैं। लड़कियों की कमी के कारण आज ऐसेे कितने मित्र हैं जो शादी की उम्र हो जाने के बावजूद अब तक दुल्हे नहीं बन पाए है। कहने का तात्पर्य है कि लड़कियों की उपेक्षा के कारण आज लड़के स्वत:उपेक्षित हो गए हैं।

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