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Nagaur, Rajasthan, India
नागौर जिले के छोटे से गांव भूण्डेल से अकेले ही चल पड़ा मंजिल की ओर। सफर में भले ही कोई हमसफर नहीं रहा लेकिन समय-समय पर पत्रकारिता जगत में बड़े-बुजुर्गों,जानकारों व शुभचिंतकों की दुआ व मार्गदर्शन मिलता रहा। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए तंग,संकरी गलियों व उबड़-खाबड़ रास्तों में आने वाली हर बाधा को पार कर पहुंच गया गार्डन सिटी बेंगलूरु। पत्रकारिता में बीजेएमसी करने के बाद वहां से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के साथ जुड़कर पत्रकारिता का क-क-ह-रा सीखा और वहां से पहुंच गए राजस्थान की सिरमौर राजस्थान पत्रिका में। वहां लगभग दो साल तक काम करने के बाद पत्रिका हुबली में साढ़े चार साल उप सम्पादक के रूप में जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बाद अब नागौर में ....

अप्रैल 18, 2010

जाने कहां गए वो दिन

घर,बाहर व कार्यालय की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद जब भी खाली समय होता है जुबां पर मुकेश के एक गाने जाने कहां गए वो दिन के बोल आ जाते हैं। जब भी दोस्त लोग एक साथ होते हैं या अकेला होता हूं तो जगजीत सिंह की एक गजल, ये दौलत भी ले लो,ये शौहरत भी ले लो,भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी....गुनगुना उठता हूं। कहते हैं कि जब कोई अपना आपके पास होता है तब आपको उसकी मौजूदगी या यों कहें कि उसकी कमी नहीं खलती और यह भी नहीं मालूम होता कि हमारे जीवन में किसकी कितनी अहमियत है। लेकिन जब हम अपनों से दूर होते हैं तो उनकी कमी खलने लगती है और उनकी गैर मौजूदगी का अहसास होने लगता है। लेकिन पापी पेट का सवाल जो ठहरा,इसके लिए सब कुछ करना पड़ता है वरना अपना गांव,अपना प्रदेश,अपनी मिट्टी भला कौन छोडऩा चाहता है। एक छोटे से मजदूर को भी अपनी मिट्टी से उतना ही लगाव होता है जितना एक जमींदार या गांव के चौधरी यानी बड़े भू स्वामी को होता है। अपनी माटी की सौंधी महक,पूर्वजों की खून पसीने की कमाई से जोड़ी गई घर की एक एक र्इंट। गांव में गिल्ली डंडे खेलते धूल धुसरित बच्चे,होली पर दोस्तों संग हंसी ठिठोली,नल पर पानी भरतीं औरते उनकी कानाफूसी,ठिठोली,उलाहने में झलकता अतिरेक सहित कई ऐसी बंदिशें अपने प्रदेश की होती है जिस पर पार पाना काफी मुश्किल होता है। अपने देश की मिट्टी में प्रस्फुटित होती है बचपन की स्मृतियां,वे स्मृतियां जो मन में बहुत कुछ खो जाने का गम पैदा कर एकाकीपन में रुलाती है। बीते दिनों को छोड़कर आगे निकल जाने के पश्चातापकी आग में जलाती है कि वे दिन अब नहीं आएंगे जब मित्रों के साथ स्कूल से घर लौटते वक्त बस्ता गांव की नाडी के किनारे रख पानी में उतर जाते थे गर्मी कम करने के लिए। वास्तव में जीवन में वे दिन स्व्र्णिम होते हैं। कम है तो गम नहीं और ज्यादा पाने का अहम नहीं। पर एक दिन ऐसा आता है जब अपनी लहलहाती खेतों की हरियाली को हमारी उपस्थिति कचौटने लगती है। अपनी माटी के लिए ही हम पराये से लगने लगते हैं। सूनी लगती है वे गलियां जिनमें चिलचिलाती धूप में भी हमजोलियों के साथ या या तो कंचे खेलते थे या होली के दिन में पेड़ों की छावं में कोई खेल। तब न हार जाने की खीझ होती है औ न जीतने का अभिमान। पर वे गर्व के दिन बीतने के बाद सामना होता है निरंतर बढ़ते वय,छूटते बचपन और दिन ब दिन बढ़ती जिम्मेदारियों से। उस समय परेशानी से उभरने लगती है शिकनें। चल पड़ते हैं एक अंतहीन मंजिल की तलाश में। और एक अदद रोजगार पाने की जुगत शुरू हो जाती है। तब अहसास होता है कि ये खेत-खलिहान ये तालाब ये नाडिय़ां ये सखा,गांव का गुवाड़ सभी रोजगार दे पाने में सक्षम नहीं है और हम अपने ही घर में बेगाने हो जाते हैं। हर एक की अपेक्षा से अर्थ से जुड़ जाती है। माता-पिता,पत्नी,भाई,बंधु-बांधव सभी पराये से लगने लगते हैं। दिन-रात ख्याल रहता है तो बस गांव से पलायन कर कुछ गुजरने का। अपनी मिट्टी,अपना गांव तब पराया सा लगता है,नहीं चाहते हुए भी अपना प्रदेश छोड़कर चल पड़ते हैं किसी अनजान डगर पर जो किसी नगर या महानगर में जाकर खत्म होती है। यहां फिर संघर्ष शुरू होता है खुद का खुद से और पनाह लेने के लिए शुरू होता है प्रयास। इसके बाद शुरू होती है इएक नई जिजीविषा,एक नया दौर-संघर्ष का दौर। दिन भर की दम फुला देने वाली मेहनत और उसके बाद रात में गांव की यादें बैचेन कर देती है।तब अहसास होता है कि कंकरीटों के इस भयानक पत्थरों के शहर में आकर हमने गांव से कितना कुछ गंवा दिया है। कई दिनों तक रात-रात भर नींद पलकों को छूकर चली जाती या फिर दस्तक ही नहीं देती।गांव की गलियां पुकारती सी लगती है। घर का आंगन मानो अपना आंचल फैलाकर लौट आने के लिए मनुहार कर रहा हो। पर तभी याद आ जाते हैं वो दिन जिन परिस्थितियों में प्रदेश का रुख करना पड़ता है,तो मन में कड़वाहट आ जाती है। वे मुफलिसी के दिन भुलाये नहीं भूलते। अपनी मिट्टी अपने प्रदेश के प्रति नाराजगी के एक स्वर में फूट पड़ती है-जाना नहीं देश वीराना है और फिर हम खो जाते हैं दिन भर की दिनचर्या के विश्लेषण और भविष्य की जद्दोजहद में और पता ही नहीं लगता कि कब निङ्क्षदया लग गई और हम फिर वहीं पहुंच गए जहां थे यानी जाने कहां गए वो दिन......ये दौलत भी ले लो,ये शौहरत भी ले लो,भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...।

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