हिन्दी दिवस पर विशेष.......
दक्षिण में हिंदी का परचम
-उत्तर-दक्षिण की दूरियां मिटाती हिन्दी
-सेतु का काम कर रही राजभाषा
दक्षिण भारत यानी देश का दक्षिणी भू-भाग ,जिसमें केरल , कर्नाटक ·, आंध्र एवं तमिलनाडु राज्य तथा संघ शासित प्रदेश पुदुच्चेरी शामिल हैं । केरल में मलयालम, कर्नाटक में कन्नड़, आंध्र में तेलुगु और तमिलनाडु तथा पुदुच्चेरी में तमिल अधि· प्रचलित भाषाएं हैं जो द्रविड़ परिवार की भाषाएं मानी जाती हैं। इन चारों भाषा-भाषियों की संख्या भारत की आबादी में लगभग 25 प्रतिशत है। दक्षिण की इन चारों भाषाओं की अपनी-अपनी विशिष्ट लिपियां हैं। दक्षिण का प्रवेश द्वार माने जाने वाले राज्य आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद- सिकंदराबाद सहित अनेक स्थानों पर हिंदी व्यापक पैमाने पर बोली जाती है।
हिन्दी के लिए उर्वरक भूमि: यहां ki भाषाओं का सुसमृद्ध शब्द-भंडार, व्याकरण तथा समृद्ध साहित्यिक परंपरा भी है । अपने-अपने प्रदेश विशेष की भाषा के प्रति लगाव के बावजूद अन्य प्रदेशों की भाषाओं के प्रति यहां की जनता में नि:संदेह आत्मीयता की भावना है। भाषाई सद्भावन के लिए दक्षिण उर्वरक भूमि है। धार्मिक ·,व्यापारिक और राजनीतिक कारणों से उत्तर भारत के लोगों के दक्षिण में आने-जाने की परंपरा शुरू होनेके साथ ही दक्षिण में हिंदी का प्रवेश हुआ। यहां के धार्मिक ,व्यापारिक केंद्रों में हिंदीतर भाषियों ke साथ व्यवहार के माध्यम के रूप में, एक बोली के रूप में हिंदी का धीरे-धीरे प्रचलन हुआ। दक्षिणी भू-भाग पर मुसलमान शासको के आगमन और इस प्रदेश पर उनके शासन के दौर में एक भाषा विशेष के रूप में दक्खिनी ka प्रचलन चौदहवीं से अठारहवीं सदी के बीच हुआ, जिसे ‘दक्खिनी हिंदी’ की संज्ञा भी दी जाती है ।
हिन्दी अपनाने के अनेक अनेक आधार: दक्षिण में हिंदी के प्रचलन के कारणों अथवा आधारों का पता लगाने पर यह बात स्पष्ट है की धार्मिक , राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक ·, व्यापारिक आदि अनेक आधार हमें मिलते हैं । यह मान्य तथ्य है की यहां पहुंचकर हिंदी भाषा को कई शैलियाँ, कई शब्द और रूप मिल गए हैं। आदान-प्रदान का एक बड़ा काम हुआ, यही आगे एकता के आधार बिंदु की खोज का मूल साबित हुआ है। भिन्न भाषा-भाषियों के बीच आदान-प्रदान का एक सशक्त एवं स्वीकृत भाषा के रूप में दक्षिण में हिंदी प्रचलित हुई है। एकता की भाषा के रूप में हिंदी के महत्व को समझकर कई विभूतियों ने इसे अपनी अभिव्यक्ति की वाणी के रूप में अपनाकर देश की जनता से अपील की थी। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने हिंदी का प्रबल समर्थन किया था। उन्होंने हिंदी को आर्य भाषा’ की सज्ञा देकर अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में ही की थी। हिंदी के प्रचलन में आर्य समाज के योगदान की यह एक मिसाल है । स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में भावात्मक एकता स्थापित करने में हिंदी को सशक्त माध्यम मानकर इसके प्रचार के लिए कई प्रयास किये गए।
गांधीजी ने बोया हिन्दी का बीज: गांधीजी की राय में भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहज में समझ ले। आगे चलकर गांधीजी की संकल्पना से दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार का एक बड़ा अभियान शुरू हुआ। आजादी के बाद जब स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण हो रहा था, तब भी गांधीजी के इन महत्वपूर्ण विचारों के अनुरूप ही भारत के संविधान में राष्ट्रीय कामकाज की भाषाओं के रूप में हिंदी को तथा देश के विभिन्न राज्यों में वहां की क्षेत्रीय भाषाओं को राजकाज की भाषाओं के रूप में मान्यता देने की चेष्टा की गई है । गांधीजी के प्रयासों से 16 जून, 1918 को मद्रास में हिंदी वर्गों के आयोजन के साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के प्रयासों को हिंदी प्रचार आंदोलन’ के रूप में एक व्यवस्थित आधार मिला। वर्ष 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का मद्रास का क्षेत्रीय कार्यालय आगे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में प्रसिद्ध हुआ और आज हजारों विद्यार्थी प्रति वर्ष यहां से न केवल हिन्दी सीख रहे हैं बल्कि हिन्दी अखबारों सहित अन्य जरुरतों को अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
हिंदी प्रचार सभा का योगदान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा भी 1964 में राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित हुई। फिलहाल इस सभा के दक्षिण के चारों राज्यों में शाखाओं के अलावा उच्च शिक्षा शोध-संस्थान भी हैं। सभा द्वारा हिंदी प्रचार कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न हिंदी परीक्षाओं का संचालन किया जाता है। उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान के माध्यम से उच्च शिक्षा एवं शोध की औपचारिक उपाधियां भी प्रदान की जा रही हैं। दक्षिण में हिंदी प्रचार के क्रम में ऐसी कई छोटी-बड़ी संस्थाएं स्थापित हुई हैं। केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति,1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की स्थापना हुई । ये संस्थाएं हिंदी प्रचार कार्य में अपने ढंग से सक्रिय हैं । इन संस्थाओं द्वारा संचालित कक्षाओं में हिंदी सीखकर इन्हीं संस्थाओं द्वारा संचालित परीक्षाएं देनेवाले छात्रों की संख्या आजकल लाखों में है ।
हिन्दी सिनेमा का योगदान: यहां हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन की बड़ी मांग रहती है, इनके दर्शकों में अधिकांश हिंदीतर भाषी भी होते हैं । हिंदी गीतों की लोकप्रियता की बात तो अलग ही है। कई दक्षिण भारतीय भाषाई फिल्मों की रिमेक हिन्दी में बनी है वहीं हिन्दी सिनेमा के असर से दक्षिण के कलाकार व दर्शक भी अछूते नहीं रहे हैं। इतना ही नहीं बॉलीवुड में दक्षिण भारतीय कलाकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने उत्तर-दक्षिण के बीच सेतु का काम किया । अंत्याक्षरी, गायन आदि कई रूपों में हिंदी गीत दक्षिण के सांस्कृतिक जीवनके अभिन्न अंग बन गए हैं । हिंदीतर भाषियों का हिंदी भाषा का अर्जित ज्ञान इतना परिमार्जित हुआ है की यहां सैकड़ों की संख्या में हिंदी के लेखक उभरकर सामने आए हैं।
पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ाव: लेखको की लेखनी से सृजित हजारों कृतिया हिंदी साहित्य की धरोहर बन गई हैं । दक्षिण से सैकड़ों की संख्या में हिंदी ki पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हैं। इनमें हिंदीतर भाषियों द्वारा हिंदी प्रचार हेतु निजी प्रयासों से संचालित पत्रिकाएं भी कई हैं। हैदराबाद, बेंगलूरु तथा चेन्नई शहरों से तीन बड़े हिंदी अखबार प्रकाशित हो रहे हैं। इसके अलावा उत्तर कर्नाटक ,जिस पर हैदराबाद व महाराष्ट्र की भाषाओं का प्रभाव होने से यहां हिन्दी बोली व समझी जाती है,में पिछले पांच साल से प्रकाशित कर्नाटक का एक मात्र राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक राजस्थान पत्रिका उत्तर व दक्षिण के बीच सेतु का काम कर रहा है। कई छोटे अखबार भी इन नगरों के अलावा अन्य शहरों से भी प्रकाशित हो रहे हैं । केवल हुबली-धारवाड़ क्षेत्र में ऐसे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित कवि व लेखक हुए है जिन्होंने दक्षिण में हिन्दी को एक नया आयाम दिया है। साथ ही हिन्दी साहित्य का क·न्नड़ में अनुवाद भी किया है। यह कहा जा सकता है की दक्षिण में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ अध्ययन, अध्यापन, लेखन, प्रकाशन में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। हुबली निवासी स्वतंत्रता सेनानी व वरिष्ठ पत्रकार पाटिल पुट्टपा (पापु)भी हिन्दी भाषा के अच्छे जानकार है। दक्षिण में हिंदीतर भाषी विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच भी एक आम संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की भूमिका अविस्मरणीय है।
राजनेताओं को हिन्दी से गुरेज नहीं : कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। उसी तरह दक्षिण के राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय राजनेताओं में भी अब हिन्दी का स्वागत किया जा रहा है। इतना ही नहीं उन्हें अपनी सफलता के लिए अच्छी हिन्दी का ज्ञान होना अनिवार्य लग रहा है। सभी को इस बात पर अचंभा ही होना चाहिए की अन्नाद्रमुक सुप्रीमो सुश्री जयललिता ने कुछ वर्ष पहले उत्तरप्रदेश के बरेली शहर में किसानो को हिन्दी में संबोधित किया । तमिलनाडु से द्रमुक की राज्यसभा सदस्य एवं मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि की पुत्री कनीमोझी भी हिन्दी की अच्छी जानकार हैं। गौरतलब यह है की अन्नाद्रमुक व द्रमुक हमेशा हिन्दी विरोधी राजनीतिक दल रहे हैं। कर्नाटक भाजपा के प्रमुख नेता अनंत कुमार हिन्दी के अच्छे जानकार हो गए हैं कर्नातक में भाजपा के लालकृषण आडवाणी जैसे नेताओं के धाराप्रवाह भाषणों का स्थानीय भाषा में अनुवाद कर दुभाषिये की भूमिका भी बखूबी निभाते हैं। हिन्दी के प्रोफेसर रह चुके पूर्व सांसद आईजी सणदी कन्नड़ के अलावा संस्कृत के भी जानकार हैं। निश्चित रूप से राजनीति· क्षेत्र में हिन्दी के प्रति पूर्वाग्रह एकदम कम हुआ है। अब तो अनेक अन्य वरिष्ठ राजनीतिज्ञ यह महसूस करते हैं की यदि वे भी हिन्दी में निपुण होते तो निश्चित ज्यादा लोकप्रिय और सफल होते। हिन्दी के प्रति राजनैतिक हठधर्मिता में आई शिथिलता ने दक्षिण भारतीयों को हिन्दी पढऩे एवं सीखने के प्रति प्रोत्साहित एवं जागरुक बनाया।
राजकीय सेवाओं ने दिया नया आयाम: डाक ,रेलवे,एयरफोर्स,सेना व बैंक जैसे विभागों का भी हिन्दी को बढ़ाने में योगदान रहा है। भारत संघ की राजभाषा के रूप में इसका प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग अन्य गैर-हिंदी प्रांतों की तुलना में दक्षिण में अधिक है । जनता की जरूरतों तथा सर्कार की नीतियों के आलोक में दक्षिण भारत में हिंदी भाषा का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल रहेगा। उत्तर भारत से हजारों की संख्या में छात्र-छात्राएं यहां बी.एड., एमबीबीएस, नर्सिंग,एमबीए व अन्य पढ़ाई के लिए दक्षिण का रुख कर रहे हैं। स्वाभाविक है की यहां उनकी जरुरतों को देखते हुए स्थानीय लोगों में हिन्दी के प्रति लगाव बढ़ा है।
मेरे बारे में
- Dharmendra Gaur
- Nagaur, Rajasthan, India
- नागौर जिले के छोटे से गांव भूण्डेल से अकेले ही चल पड़ा मंजिल की ओर। सफर में भले ही कोई हमसफर नहीं रहा लेकिन समय-समय पर पत्रकारिता जगत में बड़े-बुजुर्गों,जानकारों व शुभचिंतकों की दुआ व मार्गदर्शन मिलता रहा। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए तंग,संकरी गलियों व उबड़-खाबड़ रास्तों में आने वाली हर बाधा को पार कर पहुंच गया गार्डन सिटी बेंगलूरु। पत्रकारिता में बीजेएमसी करने के बाद वहां से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के साथ जुड़कर पत्रकारिता का क-क-ह-रा सीखा और वहां से पहुंच गए राजस्थान की सिरमौर राजस्थान पत्रिका में। वहां लगभग दो साल तक काम करने के बाद पत्रिका हुबली में साढ़े चार साल उप सम्पादक के रूप में जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बाद अब नागौर में ....
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